"जीवन बचाओ मुहिम"

हत्यारा और मांसाहार नहीं बल्कि जीवों की रक्षा करने वाला बनो।

शनिवार, अक्तूबर 31, 2020

जीवन क्या है? जीवन का सार क्या है?

प्रश्न- जीवन क्या है? जीवन का सार क्या है?

उत्तर- ‘‘जी’’ सार है जीवन का यदि जीवन से ‘‘जी’’ निकाल दिया जाए तो केवल ‘‘वन‘‘ ही रह जायेगा। ख्याल रखना जीवन के लिए जितना अवश्य ‘‘वन’’ है उतना ही वन के लिए ‘‘जी’’ आवश्यक है। जीवन क्या है? इसे जानने की लिए आपको जीना चाहिए, भरपूर जीना चाहिए, यदि आप जीएंगे नही तो जीवन को जान नही पाएंगे। 


जीवन का ‘‘जी’’ एक प्रेरणादायक शब्द है जो आपको निरंतर प्रेरित करता है कि आप जीवन को जीएं, यदि आप जीवन को जीने के बजाय केवल घसीटते हैं, रगडते हैं काम में, क्रोध में, लोभ में और मोह में संलिप्त रखते हैं तो आपका जीवन निरर्थक हो जाएगा इसलिए आपको जीवन को जीना चाहिए, भरपूर जीना चाहिए, आनंद, खुसी, शांति और संतोष को अपना स्वभाविक गुण बनाकर जीएं। काम, क्रोध, लोभ और मोह के लिए स्वयं को संघर्ष, षडयंत्र और अमानवीय कृत्यों में संलग्न कर देंगे तो आपका जीवन व्यर्थ होगा क्योंकि जीवन एक प्रेरणादायक संदेश है जो आपको जीने के लिए प्रेरित करती है न कि घृणा, नफरत और द्वेष में लगे रहने के लिए।


सोमवार, अक्तूबर 26, 2020

"करा समर्पण" - नक्सलियों के आत्मसमर्पण पर बनी हल्बी गीत रिलिज, देखने के लिए क्लिक करें...

"करा समर्पण" - नक्सलियों के आत्मसमर्पण पर बनी हल्बी गीत रिलिज


‘‘करा समर्पण’’ एक हल्बी गीत है, जिसे नारायणपुर पुलिस द्वारा तैयार कराया गया है। इस गीत के गीतकार स्वयं श्री मोहित गर्ग (आईपीएस) पुलिस अधीक्षक, नारायणपुर हैं। इस गीत के माध्यम से स्थानीय युवाओं और बालकों को किस प्रकार से जबरदस्ती नक्सली बना लिया जाता है और उन्हें अमानवीय हिंसा के लिए कितना प्रताड़ित किया जाता है तथा उन्हें अपने बडे नक्सली लीडर का कितना अधिक गुलामी करना पडता है, इसका फिल्मांकन किया गया है। इस गीत के माध्यम से दिखाया गया है कि अत्यधिक क्रुर नक्सली बनने के बाद भी उन्हें प्रेम, शिक्षा, सम्मान, स्वाभिमान और मानव अधिकारों से वंचित होकर दहशत और किल्लत भरे जीवन जीने को मजबूर रहना पडता है।

आपसे अनुरोध है कि इस विडियो को सोशल मीडिया के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को शेयर करें, ताकि नक्सलियों को आत्मसमर्पण के माध्यम से समाज के मुख्यधारा में जोडने का हमारा प्रयास सार्थक हो सके।

उल्लेखनीय है कि इस गीत के निदेशक प्रवीण सलाम और उनके साथी अमित सरकार, स्वाती पट्टावी और दिलीप निर्मलकर हैं तथा गायक-गायिका दीपक, सुखदेव, राजू बघेल, रस्सु, जयराम, प्रियंका और शिवानी हैं। गीत में केमरामेन नागेश मण्डावी है और म्यूजिक परवेज खान का है। गीत रचना में शानू, संतोष और राजू ने श्री गर्ग का सहयोग किया है। वहीं मुख्य कलाकार के रूप में हरिश और कन्हैया ने अपना रोल निभाया है जबकि पुलिस अधिकारी के रूप में रक्षित निरीक्षक श्री दीपक साव, रक्षित निरीक्षक श्री प्रदीप जोशी और सहायक उप निरीक्षक श्री नीलकमल दिवाकर ने भी अपना रोल निभाया है।

दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.... आज दशहरा है। आओ अपने भीतर के रावण और राम की समीक्षा करें...

दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं....
आज दशहरा है, आओ अपने भीतर के रावण और राम की समीक्षा करें... अपने गुण और अवगुणों का समुचित प्रबंध करें।

आज दशहरा है, तो क्या आप केवल हजारों साल पहले मृत हो चुके महात्मा, ज्ञानी, प्रकाण्ड विद्वान ब्राम्हण राजा रावण का ही पुतला दहन करेंगे?? मैं तो ऐसा कदापि नहीं करने वाला क्योंकि मेरे भीतर सैकड़ों रावण हैं और लाखों राम हैं। इसलिए पहले अपने भीतर के अवगुण को समाप्त करने का प्रयास करूंगा और सद्गुणों को दूसरों के वैचारिक सिद्धांत में प्रवाहित करने का प्रयास करूंगा।

आप आजाद भारत के नागरिक हैं जैसा चाहें अपने आस्था और विश्वास के अनुसार चाहे जो करें, मगर मैं केवल कुछ संकल्प लूंगा...

# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं किसी भी स्त्री का अपहरण नहीं करूंगा और न तो किसी स्त्री को अपमानित करने के लिए उनका अंगभंग करूँगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं चाहे कितना ही महान और श्रेष्ठ होऊं, किन्तु उसका घमंड नहीं करूंगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं चाहे कितना ही क्यों न शक्तिशाली होऊं, किन्तु उसका दुरुपयोग नहीं करूंगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "पराए स्त्री को माता और बहन मानूंगा, स्त्री के शारीरिक बनावट को निहारूँगा नहीं। अर्थात स्त्री को केवल भोग विलास की वस्तु नहीं समझूंगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं ऐसे दोस्तों और परिजनों का त्याग कर दूंगा जो विश्वासघात करने में माहिर हैं।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं किसी भी शर्त में महिलाओं के मानवाधिकार का हनन नहीं करूंगा, अर्थात उन्हें गुलाम या दासी नहीं समझूंगा। मैं अपनी पत्नी या बेटी को अपना प्रॉपर्टी समझकर शर्त में नहीं लगाऊंगा, न उन्हें दान में किसी अन्य को दूंगा।
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं दूसरों के अवगुणों की निंदा करने के पहले अपने अवगुणों को समाप्त करने का प्रयास करूंगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं किसी दूषित मानसिकता का शिकार नहीं रहूंगा बल्कि स्वच्छ आत्मा से मानवीय व्यवहार को अपने जीवन मे शामिल करूँगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं किसी के बहकावे में आकर किसी भी प्रकार से अमानवीय निर्णय नही लूँगा और न तो अपनी 'विधि' का त्याग नहीं करूंगा।"
# मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि "मैं किसी भी शर्त में हिंसा, बदले की भावना और दुर्भावना जैसे अमानवीय आचरण से ग्रसित होकर कोई काम नहीं करूंगा, बल्कि अपराधमुक्त समाज की पुनर्स्थापना में अपना योगदान दूंगा।"

चित्र : साभार धौराबाबा आसकरण दास जोगी 

भवदीय 
हुलेश्वर प्रसाद जोशी 
कुम्हारपारा, नारायणपुर 

आज का ज्ञान - #औराबाबा #जोगीबाबा

आज का ज्ञान - औराबाबा /जोगीबाबा

न्यूनतम लोगों से मित्रता रखें, विश्वसनीय लोगों से बातचीत रखें....

क्योंकि
1- कुछ असामाजिक लोग आपको फोन लगाते हैं आपसे आपके तबियत के बारे में पूछते हैं और खुलासा करने का दावा करते हैं कि आपने किसी की ...... कर दी है और उसकी जानकारी आपने स्वयं उन्हें दी है।

2- आपके नजर में शुभचिंतक लगने वाले, आपके बाजू में सदैव तत्पर खड़े रहने वाले भी कुछ लोग आपके समस्या और असफलता के कारण हो सकते हैं।

3- आप किसी इंसान के ऊपर जितना अधिक भरोसा करेंगे उनके गलतियों पर उन्हें माफ़ करेंगे वह आपको उतना ही अधिक हानि पहुचायेगा।

4- ऐसे लोग जो रायता (झूठ/अफवाह) फैलाते हैं हो सकता है सैकड़ों बार आपके हित मे फैलाएं मगर अंत में आपको ऐसे डुबोयेंगे कि आप रायता से बाहर नहीं निकल पाएंगे।

5- कुछ लोगों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी भली। ऐसे लोगों से दूर रहने में ही भलाई है, चाहे ऐसे लोगों की आपके सामने/नजर में कोई औकात ही न हो।

 #औराबाबा #जोगीबाबा


शुक्रवार, अक्तूबर 09, 2020

पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता : श्री हुलेश्वर जोशी

पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता : श्री हुलेश्वर जोशी

"पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था ही नहीं वरन ऐसे सोच को भी समाप्त करना आवश्यक है; जब तक ऐसे अमानवीय व्यवस्थाएं समाप्त नही हो जाते आपके बहन, बेटियों के साथ अन्याय, अत्याचार, प्रताड़ना और हिंसा होते रहेंगे।" ऐसे सभी प्रकार के परंपराओं, व्यवस्थाओं और मानसिकता को समाप्त करने की जरूरत है जो मानव को मानव से जन्म, जाति, वर्ण, धर्म, सीमा और लिंग के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। मेरा मानना है कि पूरे ब्रम्हांड के लगभग सारे वर्गीकरण अमानवीय और अधार्मिक हैं, जितना जल्दी हो सके वर्गीकरण के सिद्धांतों को शून्य करने की जरूरत है। हालांकि वर्गीकरण रहित सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था बनाना इतना सरल नहीं हैं, यदि ऐसा होता तो हमसे पहले जन्में लाखों बुद्धजीवी में से कुछ इसे पहले ही समाप्त कर चुके होते। बेहतर होगा कि हम ऐसे सभी वर्गीकरण को बहुत कम समय में ही समाप्त करते जाएं, क्योंकि वर्गीकरण का क्रम निरंतर चलते ही रहेगा। कोई वर्गीकरण चाहे बहुत पुराने हो या नए जब उसके हानिकारक प्रभाव अधिक होने लगे तो तत्काल ऐसे वर्गीकरण को शून्य कर देनी चाहिए। वर्गीकरण के किसी भी सिद्धांत को सिरे से खारिज कर देना अनुचित हो सकता है जैसे जाति और वर्ण के विभाजन को ही ले लें वर्तमान में यह तत्काल एक क्षण विलंब किये बिना ही समाप्त करने लायक हो चुका है जबकि संभव है यह उस समय के लिए अच्छा रहा हो, हालांकि इस आधार पर शूद्रों खासकर अछूतों के साथ हुए अन्याय, अमानवीय और अधार्मिक कृत्य किसी भी शर्त में अच्छे नहीं हो सकते। 

महिला केवल हमारी पत्नी ही नहीं बल्कि माता, बहन और बेटी भी है; हर पुरुष के हिस्से में केवल एक ही महिला होगी जो उनकी पत्नी बनेगी जिसके साथ वह अत्याचार, घरेलू हिंसा जैसे अमानवीय कृत्य कर सकता है। जबकि माता, बहन और बेटी के रूप में 5 महिला तक हो सकती है आपके हिस्से में केवल ये 5 महिलाएं ही नहीं बल्कि सैकड़ों महिलाएं आपके सगे संबंधियों में शामिल हैं जिनके साथ ये अमानवीय सिद्धांत अन्याय, अत्याचार और हिंसा करने के लिए पर्याप्त है। अरे मूर्ख अमानुष जब आप अपनी पत्नी के साथ अमानवीय व्यवहार, प्रताड़ना और घरेलू हिंसा करते हो, उन्हें गुलाम की तरह कैद में रखते हो तब छद्मपुरुषार्थ का अनुभव करते हो मगर जब आपके बहन खासकर बेटियों के साथ उनके पति छद्मपुरुषार्थ के लिए ऐसे कृत्य करते हैं तो आपको पीड़ा होती है क्योंकि जिसके साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा होता है उनसे आप प्रेम करते हैं। "यदि कोई पागल अपनी पत्नी को अपना प्रॉपर्टी, सेविका, दासी या गुलाम समझता हो तो उन्हें इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि उनके ही सिद्धांत के आधार पर उनकी अपनी बहन और बेटी को भी कोई दूसरा वैसे ही समझेगा जैसा वह अपनी पत्नी या बहु को समझता है।"

मेरे एक बहुत अच्छे मित्र हैं वे अपनी प्रेमिकाओं को गिनते थे तो उन्हें बड़ा आनंद आता था, तब हम सब नाबालिग हुआ करते थे। जिन्हें वे अपनी प्रेमिका बताते थे उनमें से अपने 8वी पास होने तक एक हाथ की उंगली के बराबर लड़कियों से फिजिकल रिलेशन बना चुके थे, उनका लक्ष्य था बालिग होने तक दोनों हाथ पैर के उंगलियों और अंगूठे को गिनती में शामिल करना। इसी बीच उनकी चचेरी बहन बड़ी होने लगी थी, एक समय आया कि एक नाबालिग मित्र उनके नाबालिग बहन से फिजिकल रिलेशन के लिए प्रयास करने लगा यह बात इन्हें भी पता चला तो ये बौखला गए। मैं अपने साथियों में सबसे बड़े उम्र का था सो समझाने बुझाने का जिम्मेदारी मेरा था, जब मीटिंग हुआ तो उस नाबालिग मित्र ने मेरे मित्र से कहा कि आप अधिकतर लड़कियों से फिजिकल रिलेशन का लक्ष्य बनाए हुए हैं मतलब वैचारिक और आध्यात्मिक रूप से आप सबको अपवित्र कर चुके हैं तो मैं किसे अपनी प्रेमिका मानूं, मेरे नजर में तो केवल हम दोस्तों की ही बहन ही बची हैं जो पवित्र हैं, जिसे एक पल के लिए भी कोई अपना प्रेमिका नहीं समझा है इसलिए मैं तो आपके बहन को ही अपनी प्रेमिका मानूंगा, आपके बहन का नाम हर दोस्तों को बताऊंगा कि वह मेरी प्रेमिका है, अपने कॉपी पुस्तक में आपके बहन का ही नाम लिखूंगा, कहीं अकेले दिखने से पीछा करूँगा, आभा मारके सायरी सुनाऊंगा, अंततः आपके बहन से ही फिजिकल रिलेशन का प्रयास करूंगा। आप मुझे रोकने का प्रयास करोगे तो ठीक नहीं होगा आपके टारगेट के सारे लड़कियों के बाप और भैया को बता दूंगा, आपके घर से लेकर डिंडोरी स्कूल तक उन लड़कियों के साथ आपके नाम को दीवालों और सड़क में लिख दूंगा। ये विवाद कई घंटों के बाद समाप्त हुआ और तय हुआ कि मेरे मित्र आज के बाद किसी भी लड़की को फ्लर्ट नहीं करेगा और दूसरा मित्र भी इनके बहन को सगी बहन के बराबर सम्मान देगा। ये उन लड़कों की कहानी है जो पिछले 2साल पहले राहेन नदी में निर्वस्त्र होकर नहाया करते थे, सार्वजनिक तालाब में भी बिना गमछा या टॉवल के चड्डी बदलते थे, ये सारे बच्चे तब एक गोलाई में बैठकर नदी किनारे टॉयलेट करते थे। इस उम्र में ही जब हमें स्त्री भोग की वस्तु लगने लगी थी तो भला बताओ हम स्त्री का सम्मान कैसे कर पाएंगे। हमारी सामाजिक मानसिकता भी बड़े गजब की है, इतनी दूषित इतनी गंदी कि मुझे लिखने में और आपको पढ़ने में लज्जा आ जाये, मगर जिस हद तक मैं लिख सकता हूँ उस आंटी की भी बेशर्मी लिखूंगा। ये मानसिकता केवल उस आंटी की नहीं जिसके बारे में लिख रहा हूँ, समाज की कुछ अधिकतर महिलाओं की भी है, कुछ महिलाओं को कई बार इन मानसिकता के साथ वार्तालाप में मशगुल देखा हूँ। मैं तब 12वीं का स्टूडेंट था लगभग 20साल का हो चुका था फिर भी स्वभाव से अपने शक्ल जैसे ही स्वीट था जिसके कारण अधिकतर लोग मुझे युवा नहीं जान पाते थे। मैं किराए के मकान में रहता था जहां बड़े भैया कंप्यूटर सेंटर के शाखा प्रबंधक और शिक्षक हुआ करते थे। कभी कभी मैं भी शिक्षक का काम करता कंप्यूटर सिखाता था हालांकि वहीं मेरा स्कूल था जहां मैं पढ़ता था। अक्सर शाम को मैं छत में ही टहला करता था, एक लड़की मुझे भी पसंद थी जिसका छत मेरे छत से कुछ दूर था जब वह अपने छत में होती तो कपड़े के पहनावा और छत में टहलने की गति से उसे पहचान सकता था। चूंकि मैं माता श्यामा देवी का शिष्य हूँ इसलिए मेरे मन में किसी भी लड़की, युवती या महिला के लिए अश्लील विचार कम आते थे, मैं प्रेम में फिजिकल रिलेशन का कट्टर विरोधी था जिसके कारण मेरे दोस्त जोगीबाबा तो कहते ही थे, पीठ पीछे मेरे पुरुषार्थ को लेकर मेरा उपहास भी करते थे। उस दिन मैं शाम को छत में ही था उस मकान के लगभग सारे किरायेदार शाम को छत के अलग अलग कोने में बने चिमनी के ऊपर और आसपास बैठकर मन हल्का करते थे, तब डिंडोरी में केवल एक एसटीडी पीसीओ था जो सायद कॉन्फ्रेंस के माध्यम से आईएसडी की सुविधा भी मुहैया कराता था और दो दुकान में डब्ल्यूएलएल फोन था जहाँ से केवल राज्य के टेलीफोन और मोबाइल में बात हो सकती थी, मकान मालिक के घर एक ब्लेक एंड व्हाइट टीवी था और हम 6-7 किरायेदार में एक और टीवी था सायद रंगीन था। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मनोरंजन का साधन नहीं था इसलिए आपस मे मिलजुल कर रहना ही रहना विकल्प था; हालांकि कुछ महिलाएं जातिगत भेदभाव और छुआछूत जैसे नीच मानसिकता से ग्रसित भी थीं जो अपने बच्चे को दूसरे बच्चों से खेलने से मना करती थी खासकर मोहल्ले के बच्चों से। छत बहुत बड़ा था, सायद उस कस्बे की सबसे बड़ा छत था फिर भी कुछ कोनो से दूसरे कोने की बात सुनी जा सकती थी।आज कुछ आंटियां छत में बैठकर किसी लड़की के चारित्रिक गुण अवगुण पर चर्चा करते हुए लड़की के माता-पिता के परवरिश पर उंगली उठा रहे थे। उस औरत के 2 या 3 लड़के थे, ठीक से याद नहीं आ रहा है। वह औरत बहुत ठेठ हिंदी छत्तीसगढ़ी में अपना पक्ष रखते हुए बोल रही थी "लड़के तो भौरा जात होते हैं, मेरे लड़का का क्या दोष? लड़की (नाम लेकर) के माता पिता को अपनी बेटी सम्हालकर रखना चाहिए, उन्हें होश होना चाहिए कि उनकी बेटी जवान हो रही है, घर में सम्हाल के रखना चाहिए, कहाँ कहाँ आती जाती है, किसके साथ जाती है? क्या कर रही है? किसके साथ क्या गुल खिला रही है? जो माता पिता अपनी बेटी को सम्हाल नहीं सकते वे पैदा ही क्यों करते हैं बेटियों को?" इतना सब कुछ सुनकर मेरे मन में आया बड़ा सा पत्थर उठाकर अपने भीतर के रावण को जिंदा कर दूं मगर वहां कोई पत्थर नहीं था हालांकि ईंट से काम चला सकता था। मेरे क्रोध का कारण था कि मेरी बहनें हैं और मैं उन्हें अपने भांति ही बराबर का आजादी देने का पक्षधर हूँ। मैं जब अपने बचपन में रात में गम्मत, सांस्कृतिक कार्यक्रम, टीव्ही, वीसीआर देखने की बात करता था तो मेरे बड़े भैया श्री देव जोशी एक ही बात बोतले थे जहां आप मोनू (मेरी बहन है) के साथ जा सकते हो वहां जरूर जाओ और जहां उन्हें नही ले जा सकते मतलब समझो कि वहां जाने योग्य नहीं है। मोनू को भी साथ ले जाओ और चले जाओ तुम्हें फूहड़ सांस्कृतिक कार्यक्रम या वीसीआर देखने जाना है। मैं इस प्रकार के शर्त इतने बार सुन चुका था कि बड़े भैया का संदेश मुझे समझ में आ चुका था और दूसरी सबसे प्रमुख बात लड़कों और पुरुषों के मानसिकता को भली भांति जानता था।

हम हजारों साल पहले के कुछ साहित्य पढ़ें तो पता चलता है कि पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पुरुष हमेशा से महिलाओं को भोग विलास की वस्तु मानने की मानसिकता के साथ जन्म लेता है, पत्नी और संतान जिसमे बेटियां भी शामिल है को अपना संपत्ति मानता है जबकि महिलाओं के लिए ऐसे अवधारणा बनाई गई है जिसमें पति को परमेश्वर, भगवान या देवता मानकर उनके हर इच्छा के लिए समर्पित रहने और उनके सेवा करने को उनका धर्म बना दिया गया है। पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की दुर्दशा ऐसी रही कि स्त्री को अपने पति का नाम लेने का भी अधिकार नही था और ऐसे अमानवीय परंपराओं में हम गौरव करने का हुंकार भरते हैं। स्त्री को संपत्ति मानकर जुआ में खेल जाना, पुत्र को बेच देना या पुत्री को दान कर देना कहाँ तक उचित था? हम जिसे गौरवशाली परंपरा मानते हैं उसमें पत्नी को वस्तु की भांति मानी जाती थी। फिर हम स्त्री के साथ, नारी के साथ या महिला के साथ मित्रता कैसे कर सकते हैं? उनके समान अधिकार को बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं? मगर धर्म, परंपरा और संस्कृति के नाम पर आखिर कब तक महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाए? 

अब वह दिन बहुत जल्दी ही आएगा जिसमें हम सब मिलकर पुरुष प्रधान सामाजिक मानसिकता को समाप्त कर देंगे; यदि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो इसका तात्पर्य यह है कि हम आज भी जानवर की भांति ही हैं। पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को हिलाने के लिए बुद्धजीवियों के साथ स्त्री को भी आगे आना होगा, लड़ना होगा। पुरुषों से पहले अपनी खुद की दुषित हो चुकी मानसिकता से उन्हें मुक्त होना होगा अन्यथा उन्हें अधिक दिनों तक यथास्थिति सहते रहना पड़ेगा। स्त्री को, महिला को, नारी को या लड़कियों को माँ, बहन, बेटी, पत्नी या बहु होकर नहीं बल्कि मनुष्य होकर जीवन जीना होगा अपने हक के लिए उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़ना होगा ठीक ख़ुशी की तरह। खुशी आज अपने ससुराल में पूरा परिवार चला रही है, सही अर्थों में परिवार की मुखिया है क्योंकि परिवार का इकलौता कमाऊ सदस्य है। खुशी मानसिक रूप से मुझसे भी अधिक आज़ाद है हालांकि पुरुष प्रधान सामाजिक मानसिकता वाले समाज में उन्हें हजारों चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

ख़ुशी (परिवर्तित नाम) पड़ोस की बुआ और उनके पति के रिश्ते को देखकर पति जैसे रिश्ते को दरिंदा समझ बैठी है। उनके नजर में अधिकांश पुरुष महिला को जिसे वह पत्नी मानते हैं शराब पीकर पीटते हैं, गुलाम की तरह घर के चारदीवारी में कैद रहने को मजबूर करते हैं। इसलिए वह 6-7 साल की नन्ही सी बच्ची निश्चय कर चुकी है कि वह कभी विवाह ही नही करेगी। आगे जब लगभग 10साल और बड़ी होकर कक्षा 12वी की स्टूडेंट रहती है तब थोड़ा उदार होकर विवाह की संभावना को स्वीकारते हुए सोचती है कि वह स्वयं पहले आर्थिक रूप से सक्षम होगी उसके बाद विवाह करेगी। ठीक इसी साल वह झमलु के प्रेम का शिकार हो जाती है, भीतर ही भीतर वह झमलु को अपना सर्वस्व स्वीकार लेती है मगर कुछ ही दिनों में वह खुद को पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता से जकड़ी हुई गुलाम पाती है। माँ लोकलाज की दुहाई देकर उनके जीवन को निष्प्राण कर जाती है, अब हर क्षण उनके शरीर के भीतर आत्मा और मानसिकता की लड़ाई होती रहती है अब उसका शरीर शरीर नहीं बल्कि कुरूक्षेत्र का मैदान हो चुका है। कुछ समय तक जिन्हें अपना पति के रूप में पाने को संकल्पित थी, जिसे स्वप्न देखा करती थी खुद को उससे दूर करने का अथक प्रयास करती रहती है, कल्पना जो खुशी की ममेरी बहन है झमलु को भैया मानती है इस नाते खुशी को भाभी कहती है और खुशी उन्हें ननद। सुमन जो खुशी और झमलु की सहपाठी है उनका मानना था कि ये आदर्श प्रेम श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम से अधिक गहरा भले न हो मगर उससे अधिक आदर्श और पवित्र जरूर है। जब खुशी की टोली बैठती थी तो एक ही विषय हुआ करता वह है झमलु और खुशी के प्रेम; झमलु के प्रेम में होते हुए भी खुशी अपने टोली के सामने जाहिर करने की साहस नही कर पाती क्योंकि वह पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता से ग्रसित खुद को मर्यादाओं की गुलाम बना चुकी है। मानसिकता के गुलामी के कारण खुशी को अक्सर सुमन और कल्पना सहित अन्य सखियों से खरी खोटी सुननी पड़ती थी, खुशी ऐसे स्थिति में थी कि वह न तो अपना प्रेम जाहिर कर पा रही थी और न तो नकार सकती थी कि उन्हें झमलु से प्रेम नही है। अब झमलु कस्बा छोड़कर परदेश जा चुका था, खुशी और झमलु एक दूसरे से दूर होने के बाद आपस में बात किये बिना भरपेट भोजन नहीं कर पाते थे क्योंकि जब तक झमलु उसके कस्बे में था रोज पोस्ट ऑफिस के बहाने उसके घर के सामने से गुजर ही जाता जिसे वह छत, खिड़की या दरवाजा के सामने से देख लेती थी। बहुत दिनों में खुशी को झमलु का मोबाइल नंबर मिला था तो वह उसे दोस्त के रूप में नए रिश्ते बरकरार रखने को आग्रह कर रोज कमसेकम एक बार बात करने के लिए राजी कर चुकी है। इस बीच खुशी विवाह योग्य हो चुकी थी, वह अपने कस्बे के ही स्कूल में पढ़ाती थी उनसे विवाह के लिए कई रिश्ते आते मगर वह मूर्ति बनकर सामने उपस्थित हो जाती थी। कुछ दुसरे या तीसरे क्रम में दुर्ग से उनके लिए रिश्ता आया वे शादी के लिए तैयार हो गए थे बारम्बार उनके घर जाते और सामाजिक दबाव के साथ विवाह के लिए आग्रह करते। यह पहली बार था जब खुशी अपना मुंह खोली और स्पष्ट शब्दों में बोल दी थी कि उनके कुछ शर्त हैं यदि शर्त स्वीकारेंगे तो ही मैं विवाह करूंगी, अन्यथा नहीं। शर्त की बात सुनकर खुशी और लड़के के परिवार और रिश्तेदार सहित लड़का भी चुप हो गया, लड़के के पिताजी पसीने से तरबतर हो गए फिर भी खुद को सम्हालते हुए बोले बताओ बेटा आपकी हर शर्त मंजूर है। खुशी फिर से बोलती है सोच लीजिये पिताजी मेरा जो शर्त है वह पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के ख़िलाफ है जिसे सुनकर लोगों की रूह कांप जाती है। लड़के के पिता जी बोले बताओ बेटा हमें आपकी शर्त मंजूर है, हम ऐसे किसी मानसिकता से ग्रसित नही हैं जो महिला और पुरुष में भेद करता हो। अंततः खुशी बोलने लगी :
1- मैं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हूँ और आगे भी आत्मनिर्भर बने रहूंगी। 
2- मैं किसी भी शर्त में पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के अनुरूप गुलामी की जिंदगी नहीं जियूंगी।
3- मैं अकेले ही घरेलू काम नही करूंगी, मेरे होने वाले पति को भी मेरे साथ खाना बनाना होगा, बर्तन धोना होगा, झाड़ू पोछा करना होगा और कपड़े धोने जैसे सारे काम करने होंगे।
4- मैं पति परमेश्वर है, ईश्वर है, भगवान है, स्वामी है या देवता है जैसे फरेबी मानसिकता को नहीं मानती, मैं अपने पति का दोस्त होना चाहती हूँ।
5- मुझे बहु जैसे नहीं रहना है बल्कि बेटा जैसे सारे आजादी चाहिए।
6- किसी भी शर्त में मैं प्रताड़ना का शिकार नही होना चाहती, यदि मुझे मेरे पति शराब पीकर या बिना पीए मारपीट करेंगे तो उसे सहूंगी नहीं बल्कि मैं भी डंडे और लात घुसे से मारूँगी। यदि मेरे पति शराब पीकर घर या घर के बाहर हुड़दंग मचाएंगे तो मैं भी उनका साथ दूंगी, साथ में शराब पियूंगी और हुड़दंग मचाऊंगी।
7- मैं घूंघट, पर्दा और श्रृंगार अपने इच्छा के अनुसार करूंगी अर्थात ससुराल में बेटी की तरह ही रहूंगी।
8- मैं शादी होकर जाऊंगी मगर अपने माता पिता को त्यागूँगी नहीं, बल्कि कमसेकम 50% समय अपने पति सहित आकर अपने मायके में भी रहूंगी क्योंकि विवाह के बाद अपने पिताजी से संपत्ति में बटवारा लुंगी।
9- यदि मेरे शर्त स्वीकार हो तो मैं शादी करने तैयार हूं, मैं आपको वचन देती हूं कि अपने ससुराल के आर्थिक जरूरतों को पूरा करने में और परिवार के लोगों का सम्मान करने में कोई कमी नही करूंगी।
10- मैं यह भी वचन देती हूं कि मैं विवाह के बाद जीवन पर्यंत साझे परिवार में रहने का प्रयास करूंगी और अपने सास ससुर की अपने माता पिता के बराबर ही सेवा और सम्मान करूंगी।

दांतों तले उंगली दबाए सब कुछ सुनते रहने के बाद लड़के के दादाजी एक पाँव में खड़े हुए और हाथ जोड़कर बोले "धन्य हैं आपके माता पिता जिन्होंने आपको जन्म और ऐसे संस्कार दिए, मैं भी चाहूंगा कि मेरी बेटी ऐसे सोच रखे मगर बेटा खुशी हम माफी चाहते हैं।" केवल इतना ही बोलकर घर से निकल गए, उसके साथ साथ उनके सारे रिस्तेदार चुपचाप निकल गए, किसी ने किसी से कुछ नही कहा। खुशी के माता पिता भी खुशी के शर्त और शब्दों की तैयारी सुनकर चौंक गए थे चूंकि खुशी के पापा शिक्षक हैं, बहुत सज्जन पुरुष हैं और सबसे खास बात यह कि वे खुशी के पापा हैं सो वे बोले बेटा मुझे गर्व है कि "मैं आपके पापा हूँ मैं आपके शर्त से सहमत हूँ क्योंकि मैं जानता हूं कि पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता महिलाओं के लिए समानांतर बिलकुल नहीं है। अधिकतर पुरुष हर शर्त में स्वयं को सर्वोच्च मानते हैं और महिलाओं के हक, अधिकार और आजादी के खिलाफ ही रहते हैं।" तीसरे दिन खुशी अपने टोली के साथ छत में बैठी हुई है कल्पना रट्टा मारके खुशी के शर्त को सुना रही है आज उनके ठहाके पड़ोसी को भी सुनाई दे रही है। सुमन कहती है "आपके शर्त इस शर्त में ही पूरे हो सकते हैं कि आपके पति के परिवार आर्थिक रूप से थोड़ा कमजोर हों, मानसिक दिवालियेपन से ग्रसित न हों और सबसे खास बात आपके पति का उम्र आपसे कम हो।" अन्यथा आपको भविष्य में अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। कल्पना कहती है "दी, यदि अभी कोई आपके हाँ में हाँ मिलाकर आपसे विवाह कर ले फिर सुहागरात मनाने के बाद या एकात संतान पैदा करने के बाद आपको धोखा दे दे तो क्या करोगी? खुशी कहती है आर्थिकरूप से सक्षम रहूंगी मतलब तलाक दे सकूंगी। इतना सब कुछ सुनने के बाद सुमन खुशी को सुझाव देती है :
1- अपने स्वयं से कम उम्र के लड़के से शादी करना, ताकि उसकी हिम्मत न हो आपसे गाली गलौज करने और मारपीट करने की।
2- आपके जैसे सोच वाली लड़कियों को स्वयं कमाऊ होना चाहिए जबकि जीवनसाथी के रूप में आर्थिक रूप से कमजोर अर्थात पत्नी के ऊपर आश्रित रहने योग्य लड़के से शादी करनी चाहिए।
3- अपने से कम अकादमिक योग्यता और कम स्किल वाले लड़के से शादी करना, ताकि आपके सामने ज्यादा होशियारी न मारे।
4- यदि विवाह के बाद भी पता चले कि आपके पति शराबी, जुआरी अथवा सट्टेबाज हो तो तत्काल उसे तलाक दे देना।
5- पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता से ग्रसित लोग आकश्मिक स्थिति में अपनी पत्नी को त्यागकर अनेक विवाह कर लेने के लिए तैयार रहते हैं वैसे ही लड़कियों को भी अपना सोच विकसित रखने की जरूरत है; किसी भी प्रकार से शारिरिक मानसिक प्रताड़ना को बर्दाश्त किये बिना कानून/न्यायालय का शरण लेने अथवा तलाक देने के लिए तैयार रहना होगा।
6- किसी भी शर्त में आत्महत्या करना व्यर्थ और अमानवीय है। 
7- हम लड़कियों को दहेज प्रताड़ना अथवा घरेलू हिंसा के झूठे मामले में फसाने वाली मानसिकता से बचकर रहना चाहिए। 

महिलाओं के मानवाधिकार और उनके लिए पुरुषों के बराबर समान आचार संहिता लागू करने के लिए आवश्यक है कि आप अपनी बेटियों को ऐसे शिक्षा दें कि वह पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता का नाश करने में अपना योगदान दे सके। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब आपकी बेटी गुलामी और गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो, दामाद शराब पीकर आपके बेटी की पिटाई करे अंतत आपकी बेटी आत्महत्या कर ले। यदि आपको खून की आँसू नही रोना है तो मेरे साथ आओ आज ही पुरूष प्रधान समाज की गंदी मानसिकता का नाश करने के लिए काम शुरू करें। यदि आप चाहते हैं कि आपकी बेटी का बलात्कार न हो, आपकी बेटी प्रताड़ना, हिंसा अथवा हत्या से सुरक्षित रहे तो बेटियों की आजादी और उनके कपड़े पर रोक लगाने से अधिक आवश्यक है कि आप अपने बेटा को लड़कियों/ महिलाओं की इज्ज़त करना सिखाइए, उनके नजरिया को बदलिए। आज हमारे समाज को बलात्कारी बनाने में बड़े पर्दे और छोटे पर्दे के सिनेमा और सोशल मीडिया का सबसे अहम योगदान है क्योंकि यहीं से अश्लीलता परोसी जा रही है इसके पहले हमारा समाज भले ही महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार और आजादी नही दे पाए मगर महिलाओं के लिए इतनी गंदी सोच नहीं था। आज टेलीविजन और सिनेमा महिलाओं को सशक्त करने में अवश्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हो मगर लड़कियों/महिलाओं के कपड़े छोटे करने और लड़कों/पुरुषों के मानसिकता को गंदे करने में सबसे आगे है। जितना जल्दी आप और आपके पुत्र सहित पुरुष वर्ग लड़कियों/महिलाओं को भोग की वस्तु समझने के बजाय बेटी, बहन या मित्र स्वीकार लेंगे नाबालिग लड़कियों और महिलाओं जिसमें आपकी बहन और बेटियां शामिल हैं के साथ बलात्कार और क्रूरता पूर्ण हिंसा भी समाप्त हो जाएंगे। पुरुषों को अपनी गंदी मानसिकता को छोड़ना होगा, मैं अपने आसपास के अधिकतर लोगों को जानता हूँ जो आज तक भले ही किसी बलात्कार के प्रकरण में शामिल नहीं हुए हैं अर्थात बलात्कार के आरोपी नही हैं या बलात्कार नही किये हैं मगर उनकी नजरें और मानसिकता इतने गंदे हैं कि पवित्र और सार्वजनिक स्थान में खड़ी, बैठी या झुकी हुई लड़कियों और महिलाओं का भी .. .. .. कर जाते हैं। जिन लोगों को मैं जानता हूँ उनमें से अधिकतर लोग अपने संतान से भी कम उम्र के लड़कियों/महिलाओं के शारीरिक बनावट को घूरते रहते हैं ऐसे नीच लोग अंदर ही अंदर नहीं बल्कि साथियों को बोलकर भी फिजिकल रिलेशन की इच्छा जाहिर कर जाते हैं और शारीरिक बनावट को आकर्षण का केंद्र बना लेते हैं यही कारण है कि आज पुरुषों की मानसिकता अधिक गंदे होते जा रहे हैं, छोटे छोटे लड़के भी बलात्कार के आरोपी हो रहे हैं। अभी तक हुए और होने वाले सभी बलात्कार और क्रूरता के लिए मैं और आप दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं; अपनी बहन बेटियों के साथ होने वाले प्रताड़ना, हिंसा और क्रूरता के लिए भी हम सब बराबर के जिम्मेदार हैं। नाबालिग लड़कियों के साथ होने वाले अमानवीय कृत्य के बाद मोमबत्ती जलाने या सरकार को कोसने के बजाय अपने संस्कार को बदलिए अपने विचार बदलिए बेहतर होगा कि अश्लीलता फैलाने वाले सारे फिल्मों और धारावाहिक में रोक लगाने में लग जाओ। 
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उल्लेखनीय है कि यह लेख श्री हुलेश्वर जोशी के आत्मकथा "अंगूठाछाप लेखक" (अबोध लेखक के बईसुरहा दर्शन) का एक अंश है।

बुधवार, अक्तूबर 07, 2020

पुलिस विभाग ने शिव मंदिर का करवाया जीर्णोद्धार और रंगरोगन

पुलिस विभाग ने शिव मंदिर का करवाया जीर्णोद्धार और रंगरोगन

सन 1943 में पुलिस थाना निर्माण के बाद पुलिस अधिकारी/कर्मचारियों द्वारा निर्माण कराया गया शिव मंदिर जो पुराना पुलिस लाइन, नारायणपुर में स्थित है। यह मंदिर लंबे दिनों से जीर्णशीर्ण हो चुका था। जिसे श्री रोशन लाल गर्ग एवं श्रीमती सीमा गर्ग के विशेष योगदान से तथा रक्षित निरीक्षक श्री दीपक साव एवं पुलिस अधिकारी/कर्मचारियों द्वारा श्रमदान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेकर मंदिर के जीर्णोद्धार में अपना अहम भूमिका निभाया। सबसे खास बात यह है कि इस मंदिर के दीवाल में शिव पार्वती और अर्धनारीश्वर शिव की चित्रकारी आरक्षक श्री चमन निषाद द्वारा किया गया है।

उल्लेखनीय है कि कल दिनांक 04/10/2020 को पुलिस अधीक्षक श्री मोहित गर्ग के जन्मदिन के उपलक्ष्य में उनके पिता श्री रोशन लाल गर्ग एवं माता श्रीमती सीमा गर्ग द्वारा भगवान शिव की पूजा अर्चना कर हवन कराया गया उसके बाद भंडारा का आयोजन कर सुंदरकांड का पाठ किया गया। बाद श्री गर्ग द्वारा स्कूली बच्चों के साथ मिलकर केक काटकर उपहार बांटे गए। इस दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक श्री जयंत वैष्णव, रक्षित निरीक्षक श्री दीपक साव, रक्षित निरीक्षक श्री प्रदीप जोशी सहित रक्षित केंद्र में तैनात अधिकारी/कर्मचारी व उनके परिवार बारी बारी से पूजा, हवन और भंडारा में शामिल होकर श्री गर्ग के सुखमय, निरोगी और दीर्घायु जीवन के लिए कामना किये।

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