लिख दूँ क्या ? "काव्य संग्रह"
अँगूठाछाप लेखक "किताब"
मंगलवार, जून 30, 2020
सुविचार - मानवता का सिद्धांत
सोमवार, जून 29, 2020
क्या आप जीवनसाथी की तलाश कर रहे हैं? - श्री हुलेश्वर जोशी
- "यदि आप सुंदरता का मतलब गोरी चमड़ी को मानते हैं तो आपसे अधिक अमानवीय सोच वाला इंसान पूरे विश्व में कोई और नहीं होगा।"
- यदि आप हिंसा या आत्महत्या कर रहे हैं तो आपसे बड़ा दुष्ट कंश भी नहीं रहा होगा। आप रामायण से सीखिए "मारने अथवा मरने से अच्छा त्यागना"
- सबसे उच्च जाति के कौन है? जवाब आया - कोई नहीं, ये जाति धर्म का विभाजन केवल फुट डालो और राजकरो का सिद्धांत है।
- मानवता को जानने के लिए, धर्म को समझने के लिए केवल आप "मनखे मनखे एक समान" और "सत्य ही मानव का आभूषण है" यह जानकर जीवन जिएं।
- जाति और धर्म के विभाजनकारी सिद्धांत को तोड़ने का सबसे अच्छा तरीका है सभी जाति धर्म के बीच रोटी बेटी का सहज संबंध स्थापित करना।
मंगलवार, जून 23, 2020
हरदी या हल्दी चंदन?
शुक्रवार, जून 19, 2020
आज भी ब्रांडेड खरीदेंगे? आत्मनिर्भर भारत के दुश्मन! - Writer HP Joshi
माफीनामाः- इस लेख को लिखने के पीछे किसी भी व्यक्ति को आहत पहुंचाना नही है, बल्कि देशवासियों को आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर करने का प्रयास करना है। यदि किसी व्यक्ति को इस लेख से बुरा लगे तो लेखक पूर्व से क्षमाप्रार्थी है। - HP Joshi
सूचना:- उपर दिये गये चित्र सांकेतिक है। जिसे घर के भीतर ही बच्चों को नाटक और स्कील सीखाने के लिए फोटो खीचा गया था। बच्चों को व्यवसाय में लगाना अनुचित और अवैधानिक हो सकता है।
लेखक सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद समाज में शैक्षणिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए कार्यरत है। श्री एच पी जोशी, वर्तमान में नवा रायपुर छत्तीसगढ़ में निवास कर रहे हैं।
मंगलवार, जून 02, 2020
अपने हिस्से के सारे निर्णय मैं ही लूँगा। अपनी धर्म, अपने धार्मिक और आध्यात्मिक गुरू व अपना आराध्य मैं स्वयं तय करूँगा।
“अपने हिस्से के सारे निर्णय मैं ही लूँगा। अपनी धर्म, अपने धार्मिक और आध्यात्मिक गुरू व अपना आराध्य मैं स्वयं तय करूँगा।” क्योंकि मुझ पर
हजारों सालों से
बोझ लाद दिया
गया है। मुझे
गेरवा से बाँध
दिया गया है।
इतने में मन
नहीं भरा तो
मेरे पीछे एक
काल्पनिक लाठी लगा दिया
गया है तब
से जब मेरा
जन्म भी नहीं
हुआ था। मेरे
माता-पिता का
भी जन्म नहीं
हुआ था। मेरे
दादा-दादी का
भी जन्म नहीं
हुआ था। मेरे
परदादा-परदादी और
उनके भी सैकड़ों
परदादाओं- परदादियों का
जन्म नहीं हुआ
था। उनके जन्म लेने के
पहले से आज
तक मुझे बोझ
से लादा ही
जा रहा है।
मेरी बुद्धि और शक्ति
को नियंत्रित करनें
का प्रयास निरंतर
जारी है।
उसी ठीक गेरवा
से मुझे भी
बुरी तरह से
जकड़कर बाँध दिया गया
है जिससे मैं
अपनी कारी को
बाँधता था। आपको
अपने बचपन की
एक कहानी बताना
चाहूँगा क्योंकि इस
कहानी को जानना
आपके लिए बेहद
आवश्यक है।
मैं कारी
को लंबे दिनों
तक बहन मानता
रहा फिर अचानक
वह माँ हो
गई थी क्योंकि
कारी मेरी गाय
का नाम है।
कारी मेरी बहन
थी या फिर
क्यों न वह
माँ थी। जो
भी हो वह
बाँधी क्यों जाती
थी?
मैं जब बच्चा
था तब समझ
में नहीं आ
रहा था।
अब कारी
बुधवरिया को जन्म
दे चुकी है।
वह बुधवरिया से
बहुत प्रेम करने
लगी है। पेउस
निकालने के बाद
कारी और बुधवरिया
को ढील दिया
गया है। आँगन
में दोनों विचरण
कर रही हैं।
मैं कुएँ से
स्नान करके घर
आ रहा हूँ।
मैंने देखा कि
सूर्य के मीठे
धूप में कारी
और बुधवरिया बहुत
अच्छी लग रही
हैं इसलिए मैं
बुधवरिया को प्रेम
करने के लिए
जैसे ही उसे
पकड़ा कारी मुझे
मारने के लिए
दौड़ाने लगी। सारे
लाड़-प्यार
और ममता का
आज THE END हो
गया।
इस घटना
के बाद जब
भी दोनों एक साथ खुले
होते हैं मैं
कभी भी उनसे
प्रेम करने नहीं
जाता हूँ। कई
बार बुधवरिया के
साथ खेलने के
लिए एक डंडा
रख लेता हूँ
ताकि कारी मुझे
मारने दौड़ा न
सके। कारी और
बुधवरिया ही नहीं
सारे भैंस और
उनके पड़वा पड़रु
पन्द्रह-सोलह घंटे
से कुछ अधिक
समय तक गेरवा
से बाँधे जाते
हैं। उसके बाद
जब उन्हें घाँस
चराने जाते हैं
तब भी लाठी
लेकर उन्हें नियंत्रित
रखते हैं। मतलब
सारे पशुओं को
सदैव नियंत्रण में
ही रखा जाता
है। एक समय
सीमा के भीतर
उन्हें थोड़ी आज़ादी
मिलती है। होलिका
दहन के बाद
से बोवारा शुरू
होने तक उन्हें
उरला छोड़ दिया
जाता है। फिर
भी मैं लाठी
लेकर बाहरा, नरवा
या नदिया के
आसपास ही रहता
हूँ। क्योंकि उनके
कहीं अन्य स्थान
में भागने का,
गुम होने का
संदेह बना होता
है। ये नियंत्रण
केवल कारी, बुधवरिया,
भूरी, मुरली और
अन्य पशुओं पर
ही लागू नहीं
है बल्कि मुझ
पर भी बराबर
लागू है। यह
बात अलग है
कि मेरे गले
की गेरवा और
मेरे पीछे लगा
लाठी आपको दिखाई
नहीं दे रहा
है मगर वास्तविकता
दिखाई देने से
भिन्न है।
गले की
गेरवा और मेरे
पीछे लगा लाठी
मेरे लिए, समाज
के लिए या
तथाकथित धर्म के
लिए कितना आवश्यक
है इसकी समीक्षा
करना संभव है
किसी सौ-पाँच
सौ पन्नों की
ग्रँथ में भी
लिखा न जा
सके। समीक्षा के
बावजूद सही निष्कर्ष
निकलना भी शायद
कठिन और विवादास्प्रद
हो अर्थात सर्वमान्य
न हो। इसलिए
गले की गेरवा
और लाठी के
सहारे नियंत्रित जीवन
को बेहतर मान
लेना मेरे लिए
ही नहीं बल्कि
आपके लिए भी
अच्छा खासा मजबूरी
है। मगर ख़्याल
रखना मैं तो
इस गेरवा और
लाठी जैसे नियंत्रणकारी
सिद्धांतों को कमजोर
करने की सोच रहा
हूँ। मेरा प्रयास
है कि ये
नियंत्रण मेरे मर्जी
के बिना मुझ
पर काम न
करे अर्थात “जिस बिंदु तक किसी दूसरे मनुष्य अथवा जीव-जंतु के अधिकारों का हनन होना संभाव्य है ठीक उसके पहले तक मुझे पूरी आज़ादी चाहिए।”
आपको आश्चर्य
हो रहा होगा
कि मैं अपनी
आज़ादी से परिचित
नहीं हूँ मगर
ऐसा क़दापि नहीं
है। कुछ हद
तक मैं अपनी
आज़ादी जानता हूँ।
मैं सामाजिक, धार्मिक,
आर्थिक और राजनैतिक
रुप से आज़ाद
हूँ,
इसके अलावा मानसिक
और आध्यात्मिक रूप
से भी संविधान
ने आज़ादी दी
है अर्थात जितना
आवश्यक है मुझे
पूरी आज़ादी मिली
है। मेरा मानना
है भारतीय संविधान
लागू होने के
पहले मुझे, आपको
और हमारे पूर्वजों
को आधा प्रतिशत
भी आज़ादी नहीं
थी। स्वाभिमान से जीवन जीने के अधिकार की कल्पना करना भी
प्रतिबंधित था।
कबीला प्रमुख अथवा
राजाओं के प्रसाद
पर्यन्त ही हम
सबका जीवन संभव
था। भारतीय संविधान
के माध्यम से
अनेकों अत्यावश्यक आज़ादी
मिलने के बावजूद
मुझ पर, मेरी
अज्ञानता और मूर्खता
के कारण ग़ुलामी
की कुछ बेड़ियाँ
लगी हुई है।
मेरी ये ग़ुलामी
कुछ धुर्त लोगों
की सोची समझी
साजिश के तहत्
है। जब तक
आप समीक्षा नहीं
करेंगे ग़ुलामी की
ये बेडियाँ आपको
दिखाई नहीं देगी।
इसलिए थोड़ा समीक्षा
जरूर करिये, ताकि
आपको भी पता चले
कि आप भी
मेरी तरह ही
ग़ुलामी की जंजीर
से जकड़े हुए
हैं।
यदि मैं
इन बेड़ियों का
नाम उजागर करूँगा
तो मुझ पर
ये आरोप लगेंगे
कि मैंने कुछ
लोगों के आस्था
को आघात पहुचाया
है। इसलिए आपके
किसी भी संदेह
या प्रश्न का
सीधा सच्चा जवाब
नहीं दे रहा
हूँ। आपके प्रश्नों
का जवाब नहीं
देना ही मेरे
हिस्से का निर्णय
है,
यही मेरी सच्ची
आज़ादी भी है।
जबकि जिस कारण
से जवाब नहीं
दे पा रहा
हूँ ये मेरी
मानसिक ग़ुलामी का
साक्ष्य भी है।
मर्यादाओं के
भीतर रहकर मुझे
अपने बारे में
बताने और समीक्षा
करने का अधिकार
है। इसके बावजूद
यदि कोई कहे कि
उनके आस्था और
विश्वास को आघात
पहुचा है तो
ये बेड़ियाँ ही
तो लगी है
मुझ पर। ये
ग़ुलामी ही तो
है जो हमें
दिखाई नहीं दे
रही है।
चलिए अपने
आस्था और विश्वास
के बारे में
आपको कुछ बातें
बताने का प्रयास
करता हूँ। प्रयास
इसलिए क्योंकि इसमें
पूरी ईमानदारी है
इसके बावजूद अधूरी
समीक्षा आपसे शेयर
कर रहा हूँ :-
“मैं माता श्यामा
देवी को जो मेरी जननी है, कुल देवी और गुरु मानता हूँ।” निःसंदेह
यह सही और
जायज है। आप
भी इन्हें गुरु
मान सकते हैं।
क्योंकि इन्होंने हमें
अनेकों बात सिखाई
है जिसमें एक प्रमुख शिक्षा है “शिक्षा
ग्रहण पहले और भोजन ग्रहण नहले।”
अब यदि
मैं माता श्यामा
देवी को लेकर
यह कहूँ कि
माता श्यामा देवी
आपकी भी कुलदेवी
है। आपकी भी
गुरु है। और
आपकी भी जननी
है। तो समझिए
ये जो आपके
हिस्से का मैं
निर्णय ले रहा
हूँ वही आपके
और आपके पूर्वजों
के साथ अन्याय
है। आपके आस्था
और धर्म पर
मेरा अतिक्रमण है।
मेरे द्वारा अपने
धार्मिक आस्था और
विश्वास को आपके
लिए अनिवार्य करने
का मेरा प्रयास
नाजायज है। क्योंकि
आप उनके संतान
हैं ही नहीं
तो वह आपकी
जननी कैसे हो
सकती है? फिर
भी आपके ऊपर
इस बात को
थोप दिया जाए
और आप भी
उन्हें अपनी जननी
मानने को राजी
या मजबूर हो
जायें तो आप
आज़ाद नहीं हैं।
क्योंकि तब आप
अपनी वास्तविक जननी
की उपेक्षा कर
उनके साथ अन्याय
कर रहे हैं।
ख़्याल रखना
माता श्यामा देवी
की एक निर्धारित
सीमा थी काम
करने की। महिलाओं
को आत्मनिर्भर और
आत्मसम्मान से जीने
की कला सिखाने
की। इसके बावजूद
उनके योगदान को
असीमित क्षेत्रों के
लिए बताकर यदि
पूरे विश्व की लोगों
के ऊपर थोप
दूँ तो मैं
गलत हूँ। यदि
आप मेरे झाँसे
में आ जायें
तो यह और
अधिक गलत होगा।
गलत उनके साथ
जो आपके सीमा-क्षेत्र
के भीतर माता
श्यामा देवी जैसे,
उससे कम या
अधिक योगदान दिए
हैं। यदि मैं
इस आत्मकथा में
माता श्यामा देवी
का वर्णन न
करूँ तो यह
भी अन्याय ही
था। माता श्यामा
देवी के प्रति
मेरा अहसान फरामोशी
ही होता।
पूज्यनीय श्री
मालिक जोशी मुंगेली
और कबीरधाम जिले
के कुछ गाँव
में शांति का
संदेश देते थे।
जिन गाँवों में
उन्होंने लोगों को
उनके आपसी विवाद
से मुक्त कराया।
वे उन्हें पिता
के समान मानते
हैं अधिकांश लोग
उन्हें गुरू मानते
हैं। यदि ये
लोग अपनी धार्मिक
आज़ादी के हवाले
से अपने मालिक
को पूरे विश्व
के मनुष्य का
पिता अथवा गुरू
बताने का प्रचार
करने लगें और
एक दिन अचानक
एक जागरूक बालक
जो अमेरिका से
है कह दे
कि मालिक केवल
कुछ सीमा क्षेत्र
के लोगों के
भले ही उद्धारक,
संरक्षक और भगवान
हो सकते हैं
मगर उनके, उनके
समाज और समूचे
विश्व के अधिकतर
लोगों के लिए
कुछ नहीं किये
हैं इसलिए वे
मालिक को अपना पिता
अथवा भगवान नहीं
मानते हैं तो
वह बालक बिल्कुल
सही कह रहा
है।
सत्य बोलने
के कारण यदि
आपके जी में
मिर्ची लग जाए
और आप उनके
ऊपर अपने आस्था
और विश्वास को
ठेस पहुँचाने का
झूठा आरोप लगा
दें तो आपकी
ये बेवकूफी, मुर्खता और धूर्तता उस
बालक के साथ
अन्याय और उनके
मानव अधिकारों का
हनन है।
आप उनके
हिस्से का निर्णय
लेकर उनके ऊपर
बोझ थोप रहे
हैं। आप बेजा
कब्ज़ा कर रहे
हैं। गुनाहगार आप
हैं। और अमेरिका
के उस बेगुनाह बालक को आरोपी बना रहे हैं। आपको बता
दूँ कि मुझे
अमेरिकी बालक नहीं
बनना है इसलिए
अपने हिस्से का
निर्णय स्वयं लेने
का पक्षधर हूँ।
आपसे भी आग्रह
है कि आप
बेवकूफ बनने से
ख़ुद को और
अपने आने वाली
पीढ़ी को बचा
लें।
लाला जोशी
मेरे परदादा के
पिता हैं। वे
अत्यंत न्यायप्रिय और
समानता के पक्षधर
हुए। शीतलकुंडा (मुंगेली)
के मालगुजार रहे।
आसपास के लोग
उनके धन और
शक्ति से पोषित
थे इसलिए आसपास
के कुछ परिवार
उन्हें अपना आराध्य मानते थे।
जब टेसुआ नाला
जो कवर्धा और
मुंगेली के मध्य
शीतलकुंडा के पास
पड़ता है बरसात
में बाढ़ आता
तो वे अपने
नौकरों के साथ
स्वयं नाव लेकर
चले जाते और
लोगों को नदी
पार कराते। जब
नाव नहीं बनवाये
थे तब वे
रस्सी और बर्तन
के माध्यम से
नदी पार कराते
थे। जो लोग
बैल गाड़ी से
आये होते या
जिनके लिए नदी
पार कर पाना
संभव न होता
ऐसे लोगों को
रात रुकने के
लिए आश्रय और
भोजन भी देते
थे। आसपास के
कुछ लोग उन्हें
पालनहार, गुरु और
भगवान कहते थे। मेरा
भी धार्मिक आचरण
उनसे प्रभावित है।
इसलिए उन्हें गुरु
मानता हूँ। मुझे
अपने धार्मिक आस्था
और विश्वास को
प्रचारित करने का
अधिकार है। इसलिए
यदि उन्हें पालनहार
और गुरु अथवा
भगवान के रूप
में प्रचारित करने
लग जाऊँ तो
आपको आपत्ति का
अधिकार नहीं है।
अच्छा प्रचार
हो जाए तो
संभव है कि
भारत सहित अन्य
देशों के कुछ
लोग भी लालाराम
जोशी को गुरु
मानने लग जाएँ। मगर
जो उन्हें नहीं
मानते अथवा जो
उनसे लाभान्वित अथवा
प्रेरित नहीं हुए
उन्हें अपने हिस्से
के सत्य बोलने का
भी अधिकार छीन
लिया जाए तो
क्या यह सही
है?
क्या उन्हें यह
बोलने का अधिकार
नहीं रहना चाहिए
कि लालाराम केवल
मुंगेली और कबीरधाम
जिला के कुछ
चंद लोगों के
पालनहार थे। कुछ
चंद लोगों के
लिए ईश्वर थे। अधिकांश
लोग उन्हें गुरु
मानते हैं मगर
मैं उन्हें गुरु
नहीं मानूँगा क्योंकि
मेरे लिए लालाराम
ने कुछ नहीं
किया है।
मुझे लगता
है ये तीन
कहानियाँ पर्याप्त है
आपके भ्रम को
तोड़ने के लिये।
मेरा यह विश्वास
है कि आप
तर्कवान हैं इसलिए
ये कहानियाँ आपको
समझाने में सफल
रहा है कि
आप अपने हिस्से
के धार्मिक आध्यात्मिक
सहित अधिकतर निर्णय
स्वयं लें। यदि
आप मुझसे असहमत
हैं तो आप भी माता
श्यामा देवी, मालिकराम जोशी और
लालाराम जोशी को
अपनी जननी, गुरू,
पालनहार, भगवान और
ईश्वर मानने की
मुर्खता कर लीजिये।
चाहे आप किसी
भी सीमा क्षेत्र,
देश या किसी
भी ग्रह के
कोई भी जीव
या निर्जीव हों।
आपको बता
देना चाहता हूँ
अभी ख़ासकर टेलीविजन
चैनल्स और सोशल
मीडिया साइट्स के
कारण जो धार्मिक
आस्था का कारोबार
है उसका दायरा
बहुत आगे और
अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके
से बढ़ चुका
है। इसलिए जो
आपके आस्था के
योग्य नहीं, कहीं
वह भी आपके
आस्था और विश्वास
का हिस्सा तो
नहीं हो गया,
थोड़ा जांच लीजिए।
कहीं दीगर
देश या दीगर
ग्रह में जन्में,
पले बढ़े और
संकुचित रहने के
बावजूद आप लालाराम
जोशी, माता श्यामा
देवी और मालिकराम
जोशी को अपना
सब कुछ तो
नहीं मान बैठे?
यदि ऐसा है
तो ज़रा समीक्षा
करिये अपने आस्था
और विश्वास का।
मेरे द्वारा फैलाये
अफ़वाह के झाँसे
में मत आईए।
अपने आदर्श ख़ुद
चुनिए। अपना गुरु
ख़ुद बनाइए। अपना
ईश्वर ख़ुद तय
करिये।
अपनी जननी
उन्हें मानिए जिन्होंने
आपको और आपके
पूर्वजों को जन्म
दिया हैं। अपना
गुरु उन्हें मानिए
जो आपको ज्ञान
दिए और देते
हैं। अपना गुरु
उन्हें मानिए जो
आपको रास्ते दिखाते
हों। अपना पालनहार
उन्हें मानिए जो
आपको प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष
रूप से भोजन,
आवास अथवा अन्य
आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध
करा रहे हों।
आप अपना ईश्वर
उन्हें मानिए जिन्होंने
आपको जन्म दिया,
पाला पोसा बढ़ाया
अथवा आपकी जानमाल
की कभी प्रत्यक्ष
अप्रत्यक्ष रूप से
रक्षा किया हो।
सेना, सशस्त्र बल
और पुलिस के
जवान, वैज्ञानिक, किसान
और डॉक्टर को
अपना संरक्षक, आराध्य,
भगवान, ईश्वर मानिये।
आप आज़ाद
हैं। अपने स्वयं
के लिए धार्मिक
सिद्धांत बनाने के
लिए। आप आज़ाद
हैं किसी भी
दूसरे के द्वारा
बनाये गये सिद्धांत
को मानने के
लिए। आप आज़ाद
हैं मेरे झाँसे
में आकर फँसने
के लिए। आप
आज़ाद हैं मेरे
धार्मिक आस्था को
अस्वीकृत करने के
लिए। इसके बावजूद
आपसे अनुरोध है
कि आप अपने
आज़ादी की भरपूर
और ईमानदारी से
इस्तेमाल करिये। मेरे
और मुझ जैसे
षड़यंत्रकारियों के बेईमानी
में मत उलझिए।
मेरे जैसे अनेकों
लोग हैं जो
अपने गणित में
आपको उलझा रहे
हैं। मेरे जैसे
अनेकों कुटिल लोग
हैं जो झूठे
आदर्श और झूठे
सिद्धांत से आपको
लाद रहे हैं।
पाट रहे हैं।
समीक्षा करिये।
जाँचिये। जो आवश्यक
और उचित हों
उन्हें आत्मसात करिये
और जो आपको
उचित नहीं लगते
उन्हें त्याग दीजिये।
जो तिरस्कार योग्य
हैं उन्हें मत
ढ़ोइये।
दूसरे के
बनावटी झूठी और
अफवाह बातों में
आकर मत फँसिये।
अपने हिस्से के
हर संभव निर्णय
स्वयं लीजिये। मैं
भी ऐसा ही
कर रहा हूँ।
मैं अपना आँख
खोल रहा हूँ
तो समझ में
आ रहा है
मेरे शरीर, घर
और आंगन में
ढेरों कचरे पड़े
हुए हैं। सफाई
के लिए अपना
झाड़ू ख़ुद पकड़
लिया हूँ। माँ
और विधि अपने-अपने
हिस्से के कचरे
साफ करती हैं।
घर आँगन तो
कचरामुक्त हो चुका
है। मगर मेरे
अपने शरीर के
भीतर के कचरे
मुझे ख़ुद ही
साफ करने हैं।
घर के
सजावट में कई
बार दुर्गम्या और
तत्वम् भी सहयोग
करते हैं। वे
सफाई के लिए
झाड़ू पोछा भी
पकड़ लेते हैं।
मगर अपने हिस्से
का सफाई मुझे
ही करना है।
अपने बालकनी और
बरामदे में हमने
कुछ हरे और
फूलदार पौधे लगा
रखे हैं। पीपल
और तुलसी के
भी पौधे लगाए
हैं। आम, काजू
और अनार भी
लगाए हैं। पीपल
और तुलसी के
बारे में मुझे
ऐसा जानकारी है
कि ये चौबीसो
घंटे ऑक्सीज़न अर्थात
प्राणवायु देते हैं।
अन्य पेड़-पौधों
की अपेक्षाकृत वातावरण
को अधिक शुद्ध
करते हैं। मगर
जब उनके पत्ते
पीले होकर गिर
जाते हैं तो
कचरे फैलाते हैं।
इसलिए गिरे हुए
पत्ते फेंक देते
हैं। ठीक आम,
काजू और अनार
के साथ है।
ये हमें फल
देते हैं मगर
जब फूल या
पत्ते गिर जाते
हैं तो गिरे
हुए पत्ते और
फूल हमारे लिए
व्यर्थ होते हैं।
आप चाहें तो
इन बेकार पत्ते
और फुलों से
आर्गेनिक खाद बना
सकते हैं, जो
जीवन दायिनी साबित
हो सकती है।
सदाबहार के
फूल देखने में
अत्यंत मनमोहक होते
हैं। हम सबको,
पूरे परिवार को
पसंद है। मगर
जैसे ही फूल
गिरकर गमले में
आ जाये और
एकाध सप्ताह उसकी
सफाई न किया
जाए,
केवल पानी ही
डाला जाए तो
हजारों जीवाणु पैदा
हो जाते हैं।
कीड़े बिनबिनाते रहते
हैं। इसलिए सफाई
अभियान चलाइये। सफाई
करिये। अनावश्यक वस्तुओं
और सिद्धांतों का
त्याग करिये। अपनी
उपयोगिता ख़ुद तय
करिये। अपने हिस्से
का निर्णय स्वयं
लीजिये।
मैं अपनी
धर्म, अपनी जाति
और अपना वर्ण
स्वयं निर्धारित करूँगा।
दूसरे के थोपे
गये को नहीं
अपनाऊँगा। कोई भी
व्यक्ति अथवा धार्मिक
नेता अपनी धार्मिक
आस्था और विश्वास
मुझ पर नहीं
थोपेगा। क्योंकि अपनी
धर्म और अपनी
धार्मिक सिद्धांत तय
करने में मैं
सक्षम हूँ।
वह चाहे
कोई भी हो,
मेरे लिए ईश्वर
अथवा गुरु तय
नहीं कर सकेगा।
मैं उन्हें ईश्वर
मानूँगा। उन्हें गुरु
मानूँगा। जो वास्तव
में उसके लायक
मेरे दृष्टिकोण में
हों। क्योंकि “मैं जानता
हूँ जो मेरा
पिता है, वह
आपका पिता नहीं
है। जो मेरी
माता है वह
आपकी जननी नहीं
है। ठीक वैसे
ही आपके आराध्य
मेरे लिए आराध्य
नहीं हैं। अपना
ज्ञान और अपनी
बुद्धि अपने लिए
चलाइये मेरे लिए
आपको बुद्धि खपाने
की कोई जरुरत
नहीं है। आपसे
पुनः कह देता
हूँ मैं काबिल
और सक्षम हूँ
इसलिए मैं अपना
रास्ता खुद बना
सकता हूँ अपनी
धर्म, धर्मगुरु और
ईश्वर भी तय
कर लूंगा।” ‘मैं जानता हूँ
कि मेरा बुद्धिमान
और तर्कवान होना
आपके लिए दुर्भाग्य
की बात है
क्योंकि मैं आपके
षड़यंत्र का शिकार
होने वाला नहीं
हूँ।’
अंत में
एक साक्ष्य और
दे देता हूँ
कि,
आपके आराध्य मेरे
आराध्य क्यों नहीं
हैः-
जिला मुख्यालय मुंगेली
के पास ही
शीतलकुंडा नामक एक
गाँव है। वहाँ
सड़कपारा के कुछ
परिवार को छोड़
दें जिसमें दीगर
जाति के कुछ
लोग रहते हैं
तो शेष सभी
परिवार दसरू सतनामी
के वंशज हैं।
वर्तमान में दसरू
सतनामी के वंशज
मनकी और नवागांव
ठेल्का में भी
हैं। इसके अलावा
बेटियाँ कुछ दर्जनों
गाँव और शहरों
में व्याह कर
गई हैं जहाँ
उनके हजारों संतान हैं।
जिसमें से अधिकतर आज भी
शीतलकुंडा आते हैं
कई बार ख़ासकर
दुख के कार्यक्रम
में,
केवल परिवार के
हजारों पारिवारिक सदस्य
शामिल होते हैं।
वर्तमान में उन
सबके लिए मेरे
बड़े दादा श्री
सालिक जोशी ज्येष्ठ
और पूज्यनीय हैं।
इसलिए भांजे-भांजी
और बहुओं (रिश्ते
में भाई की
पत्नी) को छोड़
दें तो सारे
के सारे लोग
उनके चरण स्पर्श
करते हैं।
मतलब ये
कि मेरे बड़े
दादा सालिक जोशी
हम सबके पूज्यनीय
हैं। हजारों लोगों
के पूज्यनीय हैं।
तो क्या आप
भी उन्हें पूज्यनीय
मानकर मेरे जैसे
दंडवत् होने पर
गौरव करेंगे? उत्तर
होगा- ‘‘नहीं’’ क्योंकि
आप न तो
दसरू सतनामी के
संतान हैं और
न तो उनके
उत्तराधिकारियों के।
ठीक दसरू सतनामी
के
100-200 जनरेशन ऊपर के
मानस मुखिया तत्वमादित्य
के लाखों संतान
होंगे। अर्थात् तत्वमादित्य
हम लाखों संतानों
के पुरखा हैं।
जनक हैं। आराध्य
हैं। भगवान हैं।
मगर आपके नहीं।
इसके बावजूद आपसे
कहूँ कि तत्वमादित्य
आपके भी भगवान
हैं। तो क्या
आप उन्हें अपना
जनक,
अपना पुरखा या
अपना भगवान मान
लेंगे? पुनः उत्तर
होगा - ‘‘नहीं’’ ठीक
वैसे ही ‘जिसे आप भगवान कहते
हैं और
भगवान समझते
हैं, वो सभी
मेरे लिए भगवान नहीं हैं,
मेरा पुरखा नही
हैं और न तो मेरे लिए
पूज्यनीय हैं।’
ऐसा कहना यदि
मेरी दूषित मानसिकता
है। मेरा पागलपन
है। तो आप
धार्मिक हैं न?
फिर मेरे मानस
मुखिया तत्वमादित्य को,
दसरू सतनामी, लालाराम
जोशी, त्रिभूवन जोशी,
माता श्यामा देवी
और मालिक राम
जोशी को अपना
भगवान, अपना पुरखा,
अपना जनक स्वीकार
करके मेरी मानसिकता
को साफ करने
की शुरूआत दीजिए।
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