सतनामी समाज और महात्मा गांधी : जानें, गांधी के तीन बंदर के नाम से प्रसिद्ध शिल्पकला कहाँ स्थित हैं?
बलौदाबाजार (रायपुर) परिक्षेत्र में सलौनी निवासी राजमहंत नयनदास महिलांग के नेतृत्व में सतनामी समाज द्वारा गोरक्षा आन्दोलन 1915-20 चलाया गया, अंततः ब्रिटिश सरकार को अपनी शासकीय बुचड़खाना करमनडीह/ढाबाडीह को बंद करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि समीप निपानियां (भाटापारा) रेल्वे स्टेशन से गोमांस कलकत्ता-मद्रास-बांबे सप्लाई होते थे। इसके लिए बलौदाबाजार और किरवई दो बडे मवेशी बाजार लगते थे जहाँ से गोवंश उपलब्ध होते थे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि महंत नयन दास महिलांग और गुरुअगमदास गोसाई (गुरु घासीदास बाबा के पुत्र) के द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन में सतनामी समाज और मदन ठेठवार जी के नेतृत्व यादव समाज समान रुप से जुड़ा हुआ था। गांव गांव पर्चे छपवाकर गोरक्षा आन्दोलन के पृष्ठभूमि बनाते और छड़वे गाय बछवा पाड़ा वृद्ध बैल भैसा नहीं बेचने तथा उन्हे मां बाप भाई बहन जैसे आत्मीय रिश्ते से जोड़कर मार्मिक अपील करते। जन जागरूकता के लिए पंथी गीतों के द्वारा जनजागरण फैलाए जाते :-
झन मारो कसैया मय गैयाहव जी झन मारो कसैया ...
भारतीय आजादी की आंदोलन के दौरान छत्तीसगढ़ में 03 आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें कृषकों का कंडेल नहर सत्याग्रह, आदिवासियों का जंगल सत्याग्रह और सतनामियों का गोरक्षा आन्दोलन सम्मिलित है। गाँधी जी इन आन्दोलन से प्रभावित हुए और वे अवलोकनार्थ इस परिक्षेत्र का भी दौरा किये थे।
गांधी जी के प्रवास के दौरान रायपुर से बलौदाबाजार मार्ग पर भैसा बस स्टेंड पर एक वाकिया हुआ गाँधी जी को प्रणाम करने एक सतनामी महिला आई। परंतु गांधी जी ने शर्त रखा कि वे इस शर्त पर मिलना चाहेंगे कि पहले वे इनके लिए एक रुपया दान करें। महिला के पास रुपये नहीं था, वह सहज भाव से बोली कि आप यही रुकिए मैं अभी घर से पैसे लेकर आ रही हूँ। उनकी इस कथ्य से गांधी जी बहुत प्रभावित हुए थे। आगे चलकर गांधी जी गुरुवंशज अगमदास गोसाई मिनीमाता सहित अनेक संत-महंत से मिलकर सतनाम संस्कृति और तीन बंदरों की दृष्टान्त से भी परिचित हुए और तीन बंदरों की दृष्टान्त से इतने प्रभावित हुए कि वे इनका जिक्र अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में करने लगे जिससे मोती महल गुरुद्वारा भंडारपुरी के कंगुरे में स्थित तीन बंदर की कहानी, गांधी के तीन बंदर की मौलिकता के रूप में ख्याति प्राप्त कर लिया।
इसके बाद गांधी जी आगमन छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता संग्राम और अस्पृश्यता निवारण संदर्भित दो बार और हुआ, जिसमें सतनामियों ने उनके साथ कंधे से कंधे मिलाकर सहयोग किया। क्योंकि सतनामियों को पता था कि आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में उनका खोया हुआ वैभव और सामाजिक वैमनस्य भाव से निजात मिलेगा। अतः सतनामी समाज के हजारों मालगुजार, गौटिया और मंडल ने खुलकर कांग्रेस व गांधी जी का सहयोग किया और हिन्दू सतनामी महासभा गठित कर स्वतंत्रता संग्राम में बढचढ़कर सहभागिता निभाए तथा अपना सर्वस्व समर्पित कर दिए। 1935 में गठित अंतरिम सरकार सी पी एंड बरार से गुरु अगमदास गुरुगोसाई प्रतिनिधित्व किए और उनके नेतृत्व में पुरा सतनामी समाज राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े।
इस तरह देखें तो सतनामियों का द्वितीय सामाजिक व राजनैतिक अभियान 1915 से लेकर आजादी प्राप्ति तक और उसके बाद सामाजिक समरसता और समानता अर्जित करने तक लंबा संघर्ष का स्वर्णिम इतिहास हैं। इस समुदाय का सामाजिक आन्दोलन आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन में परिणत हो गये। तब छत्तीसगढ़ में प्रायः ग्राम्य व कस्बाई संस्कृति ही था और समकालीन घटनाक्रम का दस्तावेजी करण अन्यान्य कारणों के साथ -साथ और प्रायः अशिक्षा व प्रिंट माध्यम नहीं होने के कारण नहीं हो सका है परंतु जनश्रुतियों में यह आज तक विद्यमान हैं।
टीप- ज्ञात हो कि तीन बंदरों का शिल्पांकन मोती महल गुरुद्वारा भंडारपुरी के कंगुरे पर अपने निर्माण काल 1820-25 से अंकित है और उसका समाज में गहरा प्रभाव है।
लेख - डॉ॰ अनिल कुमार भतपहरी
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